संविधान दिवस : हमारे अधिकार और कर्त्तव्य
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संविधान दिवस सच पूछिये तो यह याद करने का दिन है कि 1949 में इसी दिन एक देश के तौर पर हमने संविधान सभा में दृढ़ संकल्प होकर अपने संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया था।
इसका अर्थ था कि अब हम साम्राज्यों या कि राजे-महाराजाओं के शासन के दौर से बाहर निकल आए हैं और आगे संविधान की व्यवस्था के तहत निर्वाचित प्रतिनिधियों के बनाए नियम-कानूनों द्वारा शासित होंगे। जानकारों की भाषा में कहें तो यह खुद के द्वारा खुद पर शासन होगा, जिसमें निर्वाचित प्रतिनिधियों को जनादेश के अधीन रहकर हर तरह की मनमानी से परहेज करना होगा।
इतना ही नहीं, उन्हें भारतीय गणतंत्र के उस संकल्प को परम पवित्र मानकर चलना होगा, जो उसकी प्रस्तावना में वर्णित है और जिसमें कहा गया है कि यह संविधान हमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने तथा हम सबमें व्यक्ति की गरिमा व राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के उद्देश्य को समर्पित होगा। ‘खुद ही शासक खुद की शासित’ की इस स्थिति में किसी के कहे या बताए बिना भी समझा जा सकता है कि संविधान का यह उद्देश्य तभी पूरा होगा, जब देशवासी उसे आधे-अधूरे नहीं बल्कि पूरे मन से अंगीकृत व आत्मार्पित कर सम्यक रूप से अपने आचरण में उतारेंगे। इसके बगैर अधिनियमित होने के बावजूद वह औपचारिकता से वास्तविकता तक की अपनी यात्रा की सारी बाधाएं नहीं ही दूर कर पाएगा।
यहां सवाल स्वाभाविक है कि संविधान के शासन के सात से ज्यादा सफल दशकों से गुजर जाने के बाद यह सब याद दिलाने का क्या तुक है? इसका जवाब बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के इन शब्दों में है कि इसके बगैर संविधान अस्तित्व में तो रह सकता है, लेकिन अस्तित्व की गुणवत्ता या स्तर नहीं प्राप्त कर सकता। इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि इन सात से ज्यादा दशकों में देश में सरकारें कितनी भी और किसी की भी क्यों न आई गई हों, संविधान का शासन अपनी गुणवत्ता के वांछित स्तर की प्राप्ति के लिए तरसता ही रहा है। नि:संदेह, इसीलिए संविधान के निर्माताओं द्वारा उसके सच्चे शासन के लिए नागरिकों से जो न्यूनतम अपेक्षा की गई है, वह यह कि वे सच्चे अथरे में नागरिक बनें, संविधान के तहत मिले अपने अधिकारों व कर्तव्यों को ठीक से समझें और उनके पालन के प्रति जागरूक रहें। विडम्बना यह है कि अभी भी देश के नागरिकों का बड़ा हिस्सा इसकी पूरी जानकारी से महरूम है कि संविधान बना तो उसमें उन्हें सात मौलिक अधिकार प्रदान किए गए थे। ये हैं : समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरु द्ध अधिकार, धर्म, संस्कृति एवं शिक्षा की स्वतंत्रता का अधिकार, संपत्ति का अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार। इनमें संपत्ति के अधिकार को 1978 में 44वें संविधान संशोधन द्वारा मौलिक अधिकारों की सूची से निकाल दिया गया, इसलिए अब वह महज कानूनी अधिकार है, जबकि शेष छह मौलिक नागरिक अधिकार बने हुए हैं।
संविधान के तहत राज्य का दायित्व है कि वह इन अधिकारों की किसी भी तरह के अतिक्रमण से रक्षा करे, ताकि सारे नागरिकों की समानता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधारित लोकतांत्रिक सिद्धांतों की रक्षा के संवैधानिक उद्देश्य का रास्ता निर्बाध बना रहे। अलबत्ता, संविधान इन अधिकारों को संपूर्ण नहीं करार देता इसलिए वे सार्वजनिक हितों की रक्षा के लिए आवश्यक उचित प्रतिबंधों के अधीन हैं और उन्हें संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन न होने की सीमा तक घटाया या बढ़ाया जा सकता है-संसद के प्रत्येक सदन में दो तिहाई बहुमत से पारित संवैधानिक संशोधन द्वारा। दुर्भाग्य से हम अभी भी नागरिकों के बड़े हिस्से को इन अधिकारों के प्रति सचेत नहीं कर पाए हैं। हमारे इस ‘न कर पाने’ की भरपाई मौलिक कर्तव्यों के प्रति उनका अनुराग जगाकर की जा सकती थी, लेकिन इस अनुराग की स्थिति अधिकारों के प्रति जागरूकता के अभाव से भी बुरी है।
प्रसंगवश, संविधान के अनुच्छेद 51 (क) एवं भाग 4 (क) में नागरिकों के ग्यारह मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है और अपेक्षा की गई है कि वे उन्हें निभाएंगे। इनमें पहला कर्तव्य संविधान को सर्वोच्च मानकर उसके आदर व अनुपालन और साथ ही तिरंगे व राष्ट्रगान के सम्मान से जुड़ा है, जबकि अन्य कर्तव्यों में राष्ट्र की एकता, अखंडता, संप्रभुता, विचारधारा, आदशरे, मूल्यों, संस्कृतियों, सामाजिकताओं, प्राकृतिक संपदाओं और सार्वजनिक संपत्तियों वगैरह की रक्षा, सरंक्षण, वृद्धि व सम्मान की बात कही गई है। इसी तरह स्वतंत्रता के लिए बलिदान करने वाले सेनानियों और सहजीवी नागरिकों के अधिकारों के आदर, वैज्ञानिक मानदंडों में विश्वास और ज्ञान के नये क्षेत्रों के विकास व वृद्धि भी नागरिकों के कर्तव्य हैं। जो नागरिक माता या पिता हैं, उनका अलग से एक कर्तव्य गिनाया गया है। यह कि वे अपने छह से चौदह साल के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा के लिए स्कूल अवश्य भेजेंगे। गौरतलब है कि 1976 में संविधान में 42वें संशोधन द्वारा निर्धारित इन नागरिक कर्तव्यों का पालन बहुत कठिन भी नहीं है, लेकिन जागरूकता के अपेक्षित स्तर के अभाव में ‘उत्तरदायित्व समझकर’ इनका ‘अनिवार्य रूप से पालन करने’ के संवैधानिक निर्देश के बावजूद नागरिकों के ‘कर्तव्यबोध’ में कोई गुणात्मक बदलाव आता नहीं दिख रहा।
नि:संदेह यह स्थिति नागरिकों को संवैधानिक अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति जानकार व जागरूक बनाने के ऐसे बड़े देशव्यापी सामाजिक-सांस्कृतिक अभियान की मांग करती है, जिसमें उन्हें संविधान के गुणों व मूल्यों से भी यथेष्ट रूप से अवगत कराया जाए। डॉ. अम्बेडकर के इस कथन के आईने में कि संविधान के तहत बहुमत के शासन का नियम उतना पवित्र नहीं है, जितना समझा जाता है। इस शासन को सि़द्धांत के रूप में नहीं बल्कि नियम के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। इसलिए हमारे जैसे बहुलताओं व विविधताओं वाले देश में राज्य को जटिल विवादों को सुलझाने के लिए सर्वसम्मति का नियम ही अपनाना चाहिए। जूरी पद्धति के अनुसार, जिसमें कोई निर्णय तभी बाध्यकारी होता है, जब सर्वसम्मति से किया गया हो।